Class 12th Hindi Pragati aur samaj subjective question answer
9. प्रगीत और समाज– नामवर सिंह
प्रगीत और समाज का सारांश :
प्रगीत और समाज एक अलोचनात्मक निबंध है। यह निबंध नामवर सिंह मे द्वारा लिखा गया है यह निबंध अलोचनात्मक निबंधों कि पुस्तक वाद-विवाद संवाद से लिया गया है। यह निबंध में नामवर सिंह ने प्रगीत का समाज में क्या महत्व है उसके बारे में बताया है। प्रगीत एक ऐसा काव्य है जिसे गाया जा सकता है लेखक कहते है कि आजकल कविता पर समाज के दबाव को महसूस किया जा रहा है। ऐसे में लेखक उन कविताओं कि ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते है जिनमें काव्य लंबी और मानवता से भरी हुई है। इस निबंध में प्रगीत नामक काव्य के रूपो को समाजिक जातियों और प्रकृति के भावना को दिखाया गया है जो हजारों वर्ष से हिन्दी काव्य कि परम्परा का इतिहास रहा है ।
इसमें बताया गया है कि प्रगीत काव्य ने समाज और काव्य रचना में अपनी जगह बनायी है। और अपने महत्व और गुणों को दर्शाया है। प्रगीत धर्मी को कविताऐं है जो समाजिक जीवन को व्यक्त या समझा नहीं पाती है और न इससे इसकी अपेक्षा कि जाती है। आधुनिक हिन्दी कविता में प्रगीत को समाज में कोई अहम भूमिका नही निभाते है। प्रगीत कि संज्ञा नही ! दी जाती है लेखक कहते है कि रामचन्द्र शुक्ल के काव्य सिद्धांत के आदर्श भी प्रबंध ही रहे थे क्योंकि प्रबंध काव्य में मानव जीवन का एक पूर्ण दृश्य होता है। और प्रगीत को गीतिकाव्य था लिरीक भी कहा जाता है।
वास्तव में हिन्दी प्रगीतों कि लंबी परंम्परा रही है। आदि काल, भक्ति काल से ही यह अवाध रूप से चला आ रहा है, यह सच है कि प्रगीतों में आत्म प्रगीत
परंतु समाजिकता भी रही है जैसे :- तुलसी के रामचरित मानस में जो समाजिकता है उससे तो सभी परचीत है। परन्तु उन्ही का रचना बिनय पत्रिका में भी सामाजिकता कि बात आयी है और हमारे समाज में कविता कबीरदास, सुरदास् मीरा, रसखान इत्यादि के प्रगीतों में जो समाजिक स्वरूप है उसे कौन नहीं जानता है। और आधुनिक काल में साहित्य और समाज के स्वरूपों में बड़ा परिवर्तन हुआ है। अतः आधुनिक प्रगीत में भी
स्थिती में इसका लोप नही है हो सकता है। बल्कि वर्तमान में इसे बढ़ावा देने कि आवश्यकता है।
1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्य- आदर्श क्या थे? पाठ के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के काव्यादर्श प्रबन्धात्मक थे, कारण यह है कि प्रबन्ध
काव्य में ही मानव जीवन का एक पूर्ण दृश्य समाहित हो सकता है सूरसागर पर भी वे इसी कारण मोहित थे। वह ‘ महाकाव्य की श्रेणी में आता है। आधुनिक . उन्हें शिकायत थी। पहली यह थी कि कला कला के लिए के आधार पर यूरोप में जो प्रगीत मुक्तकों का प्रचलन हुआ उसका आधार लेकर उनकी हमारे यहाँ भी इनकी रचना हुई. साथ ही नितान्त व्यक्तिगत रहे यहाँ समष्टि चिन्तन था समष्टि कल्याण को खोजना बालू में नाव चलाना ही है यह भी एक स्थिति आ गयी कि अब लम्बी कविता पढ़ने का फैशन ही चला गया क्योंकि अब फुर्सत किसको थी विशुद्ध काव्य के नाम . पर जो लिखा गया वह छोटे छोटे मुक्तकों में ही समा गया, वहाँ जीवन रस था ही नहीं पर जब शेरसिंह का शस्त्र समर्पण (प्रसाद) प्रलय की छाया तथा कामायनी ( प्रसाद ) तथा निराला की राम की शक्ति पूजा तथा तुलसीदास जैसे आख्यानक सामने आये तो शुक्ल जी ने सन्तोष व्यक्त किया ।
2. ‘कला-कला के लिये सिद्धान्त क्या है?
उत्तर– कला-कला के लिए सिद्धांत का अर्थ है कि कला लोगों में कलात्मक का भाव उत्पन्न करने के लिए है। इसके द्वारा रस एवं माधुर्य की अनुभूति होती है। इसलिए प्रगीत मुक्तको की रचना का प्रचलन बढ़ा है।
3. प्रगीत को आप किस रूप में परिभाषित करेंगे ? इसके बारे में क्या धारणा प्रचलित रही है?
उत्तर- पाश्चात्य साहित्य की लिरिक पोइट्री के लिए हिन्दी में गीतिकाव्य शब्द का प्रयोग हुआ, पर बाद में उसके लिये गीतिकाव्य प्रगीतकाव्य अथवा प्रगीति मुक्तक शब्द भी प्रचलन में आ गया प्रबन्ध और मुक्तक में जो अन्तर है, वही प्रगीत का भी रूप देखा जा सकता है । प्रबन्ध काव्य में यथार्थ, आदर्श इतिहास अथवा कल्पना का समावेश होता है, एक पूर्णता रहती हैं पात्रों का अपना अपना व्यक्तित्व होता है पर प्रगीत में निर्बाध प्रत्यक्ष व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति होती है यहाँ पर प्रत्यक्ष संकोच, कुण्ठारहित निजी व्यक्तित्व तथा उच्छ्वासित भाव तरंगों को ही वाणी प्रदान की जाती है अत : यहाँ सहज तरलता अबाध मुक्तता और प्रत्यक्षानुभूति की ध्वनि दिखायी पड़ती है। वैयक्तिकता तो गीतिकाव्य का आधार ही है। गीतिकाव्य वही काव्य है जहाँ कवि की वैयक्तिक भावनाएँ अनुभूतियाँ उसके अनुरूप लयात्मक अभिव्यक्ति पा जाती हैं। उसको क्षण की वाणी भी कहा जाता है जो क्षणपूर्ण और समग्र होते हैं और वे क्षण ही समग्र जीवन भी प्रतीत होते हैं। जूही की कली उसी श्रेणी की रचना है जो पूरी तरह आत्मपरक है। यह भी माना जा सकता है कि प्रगीत काव्य वस्तुगत यथार्थ अपनी चरम आत्मपरकता का रूप लेकर ही उभरता है। यह भी कहा जाता है प्रगीत काव्य में वस्तुगत यथार्थ अपनी चरम आत्मपरकता के रूप में ही व्यक्त होता है पर इसके विपरीत प्रसाद निराला की लम्बी कविताओं में यह भाव सामाजिक रूप में भी व्यक्त हुआ है, पर यह मान्यता तो है प्रगीत काव्य न तो सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिये पर्याप्त समझे जाते हैं न उनसे उसकी आशा की जा सकती है- कारण वे नितान्त वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति मात्र ही मानी जाती है। इतना होने पर भी मुक्तिबोध निराला और प्रसाद की कतिपय बड़ी कविताएँ इस धारणा के विपरीत खड़ी होती हैं।
4. वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं से क्या तात्पर्य है? आत्मपरक प्रतीक और नाट्यधर्मी कविताओं की यथार्थ व्यंजना में क्या अन्तर है?
उत्तर- वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं के जीवन में समस्त चित्र उभर आते हैं। यद्यपि मुक्तिबोध की लम्बी कविताएँ वस्तुपरक ही मानी जा सकती हैं पर वे भी उनके आत्मसंघर्ष से दूर नहीं हैं। ये कविताएँ अपने रचना कौशल से प्रगीत ही हैं यह बात अलग है कि किसी में तो नाटकीय रूप के बावजूद काव्य भूमि प्रगीतात्मक ही है, कहीं नाटकीय एकालाप भी दिख जाता है, तो कहीं पूर्णत: शुद्ध प्रगीत भी झलकता है उनको सहर्ष स्वीकारा है तथा मैं तुम लोगों से दूर हूँ मुक्तिबोध ने इनके बारे में स्वयं भी कहा है उनमें कथा केवल आभास है नाटकीयता केवल मरीचिका है वह विशुद्ध – आत्मपरक काव्य है। जहाँ नाटक नाटकीयता है वहाँ भी कविता के भीतर की सारी नाटकीयता वस्तुत: भावों की है जहाँ नाटकीयता है वहाँ वस्तुतः भावों की गतिमयता . है कारण वहाँ जीवन यथार्थ मात्र भाव रूप में ही सामने आया है अथवा बिम्ब या विचार बनकर अत: यह माना जा सकता है कि आत्मपरकताकता अथवा भावमयता किसी कवि की सीमा नहीं बल्कि शक्ति है जो उसकी प्रत्येक कविता में गति प्रदान करती है। ऊर्जा देती है। आत्मपरक प्रगीत भी नाट्यधर्मी लम्बी कविताओं के समान हैं, यथार्थ की अभिव्यक्ति करते हैं, फिर भी अन्तर अवश्य है, यहाँ वस्तुगत यथार्थ अन्तर्जगत उस मात्रा में घुला होता है जितनी उस यथार्थ की ऐन्द्रिक उबुद्धता के लिये महत्व है अत : यह स्पष्ट है कि किसी प्रगीतात्मक कविता में वस्तुगत यथार्थ अपनी चरम आत्मपरकतों के रू
प में ही व्यक्त है ।
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